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कार्य और शिक्षा
श्रीअरविन्द का कार्य है एक अनोखा पार्थिव रूपान्तर ।
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श्रीअरविन्द ने अतिमानसिक चेतना को मानव शरीर में मूर्तिमन्त किया । उन्होंने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जिस मार्ग का अनुसरण करना चाहिये उसकी प्रकृति ओर उस पर चलने का न केवल तरीका ही बताया बल्कि अपनी व्यक्तिगत उपलब्धि के द्वारा हमारे सामने उदाहरण भी रखा । उन्होंने हमारे सामने प्रमाण रखा कि यह किया जा सकता हे और बताया कि उसे करने का समय भी अभी हे ।
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क्षण- भर के लिए भी यह विश्वास करने में न हिचकिचाओ कि श्रीअरविन्द नें परिवर्तन के जिस महान् कार्य के लिए बीड़ा उठाया है उसकी पूर्णाहुति सफलता में ही होगी । क्योंकि यह वस्तुत: एक तथ्य है : हमने जो काम हाथ में लिया हैं उसके बारे में सन्देह की कोई छाया भी नहीं है... । रूपान्तर होगा ही होगा : कोई चीज उसे नहीं रोक सकती, सर्वशक्तिमान् के आदेश को कोई विफल नहीं कर सकता । समस्त शंकाशीलता और दुर्बलता को उठा फेंक और उस महान् दिवस के आने तक कुछ समय वीरता के साहा सहन करने का निश्चय करो, यह लम्बा युद्ध चिर विजय मे बदल जायेगा ।
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हमें श्रीअरविन्द पर श्रद्धा है ।
हम अपने अनुभव को व्यक्त करने के लिए उसे शब्दबद्ध करते हैं, वे शब्द हमें बिलकुल सटीक लगते हैं और हम श्रीअरविन्द को उसी रूप में मानते हैं । स्पष्ट हैं कि ये शब्द हमारे अनुभव को शब्दबद्ध करने के लिए हमारी दृष्टि से सर्वोत्तम हैं ।
लेकिन अगर हम अपने उत्साह में यह मान बैठे कि श्रीअरविन्द जो हैं
और उन्होंने हमें जो अनुभूति दी हैं उसे ठीक से व्यक्त करने के लिए केवल ये ही शब्द उपयुक्त हैं, तो हम मतांध बन जायेंगे और एक धर्म की स्थापना करने की तैयारी मे होगे ।
जिसके पास आध्यात्मिक अनुभूति और श्रद्धा हो, वह उसे अपने लिए सबसे अधिक उपयुक्त शब्दों में अभिव्यक्त करता हैं ।
लेकिन अगर वह यह मान बैठे कि इस अनुभूति और श्रद्धा की बस यही एकमात्र सही और सच्ची अभिव्यक्ति हैं, तो वह मतांध बन जाता है और एक धर्म स्थापित करने की ओर प्रवृत्त होता हैं ।
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हर एक के अपने विचार होते हैं और वह श्रीअरविन्द के लेखों में सें अपने विचारों का समर्थन करने वाले वाक्य खोज निकालता है । जो लोग इन विचारों का विरोध करते हैं वे भी उनके लेखों के अनुकूल वाक्य पा सकते हैं । पारस्परिक विरोध इसी तरह काम करता है । जब तक वस्तुओं के बारे में श्रीअरविन्द की समग्र दृष्टि को न लिया जाये तब तक सचमुच कुछ नहीं किया जा सकता ।
१० अक्तूबर, १९५४
संभवन की शाश्वतता में प्रत्येक अवतार केवल एक अधिक पूर्ण सिद्धि का उद्घोषक और अग्रदूत होता है ।
फिर भी लोगों की हमेशा यह वृत्ति रहती है कि भविष्य के अवतारों के विरोध में भूतकाल के अवतार की पूजा करें ।
अब फिर से श्रीअरविन्द जगत् के सामने आगामी कल की उपलब्धि की घोषणा करने आये हैं; और फिर से उनके सन्देश का उसी तरह विरोध हो रहा हे जैसा उनसे पहले आने वालों का हुआ था ।
लेकिन आगामी कल उनके द्वारा प्रकाश में लाये गये सत्य को प्रमाणित करेगा और उनका कार्य पूरा होगा ।
२१ फरवरी,१९५७
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२३ तुम्हारी मुख्य अ यह धी कि तुमने श्रीअरविन्द की शिक्षा को आध्यात्मिक शिक्षाओं में से एक मान लिया- और यहां होने वाले कार्य को भागवत क्यों के बहुत-से पहलुओं में से एक जाना ।
इसने तुम्हारी आधारभूत स्थिति को मिथ्या बना दिया और यही सभी कठिनाइयों और गड़बड़ों का कारण हे ।
अगर तुम्हारे मन और तुम्हारी वृत्ति में यह फ ठीक कर ली जाये तो दूसरी सब कठिनाइयां आसानी से गायब हो जायेंगी ।
तुम्हें यह समझ लेना चाहिये कि विश्व इतिहास में श्रीअरविन्द जिस चीज के प्रतिनिधि हैं, वह कोई शिक्षा नहीं हे, कोई अन्तःप्रकाश भी नहीं है; यह सीधा परम प्रभु से आया हुआ निर्णायक कार्य है ।
और मैं बस उस कार्य को पूरा करने की कोशिश कर रही हूं ।
१९६१
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एक मित्र के गांधीजी के बारे गये लिखे नये निबद्ध की आलोचना करते हुए, मैंने अहिंसा तथा कुछ अन्य सिद्धार्थों पर श्रीअरविन्द के उद्धरण दिये थे इन विषयों को गांधीवाद में ''स्वतः प्रमाण '' माना जाता हे? मेरे मित्र ने इसका विरोध करते हुए लिखा है कि श्रीअरविन्द के लिए आदर-सम्मान के कारण अन्य ' के बारे में अंधा नहीं हो जाना चाहिये : उसके अनुसार सभी ने 'सत्य ' की झाँकी पायी हे? लगा कि औरों के लाख श्रीअरविन्द की बात रखकर मैंने भूल की में इस बारे गये विस्तार से उत्तर देना चाहता हूं ! लोकनी सें तभी ' जब आपकी मिल जाये अगर आप अपना उत्तर दे सकें तो बहुत होगी ।
' सत्य ' तक पहुंचने और उसे अभिव्यक्त करने के लिए मानवजाति ने जो प्रयत्न किया है उसमें उन सबका स्थान है जिन्होने कोई खोज कार्य किया हैं, वह चाहे जितना छोटा क्यों न हो, और गांधी उनमें से एक हैं ।
लेकिन हमेशा यह बड़ी स्व होती आयी है कि इन आशिक खोजों को परम सामंजस्य में एक करने की जगह इनका विरोध किया गया हैं । इसी
२४ लिए मानवजाति अभी तक अंधेरे मे टटोल रही है ।
श्रीअरविन्द यह प्रकट करने के लिए आये हैं कि यह परम सामंजस्य विद्यमान हे । वे हमें उसे खोजने का मार्ग दिखाने आये हैं ।
मार्च, १९७०
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(एक समस्या के बारे में )
तुम्हें श्रीअरविन्द की चीजें पढ़कर उत्तर जान लेना चाहिये।
१९ अक्तूबर, १९७२
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अगर कोई सावधानी से श्रीअरविन्द की चीजें पढो तो बह जो कुछ जानना चाहता है उसका उत्तर मिल जाता है ।
२५ अक्तूबर १९७२
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श्रीअरविन्द ने सभी विषयों पर जो कुछ कहा है उसका सावधानी के साथ अध्ययन करने से तुम इस जगत् की सभी चीजों के पूर्ण ज्ञान तक पहुंच सकते हो ।
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श्रीअरविन्द के लेखों का अध्ययन करो और उनकी साधना का अनुसरण करो ।
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सावित्री श्रीअरविन्द की अन्तर्दृष्टि का परम अन्तर्ज्ञान
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२५ ('सावित्री' के बारे मे)
१) लिखने वाले व्यक्ति की आध्यात्मिक अनुभूतियों का दैनिक विवरण । २) जो लोग पूर्णयोग का अनुसरण करना चाहते हैं उनके लिए मार्गदशन करने वाली एक पूर्ण योग-पद्धति । ३) भगवान् की ओर आरोहण करती हुई ' धरती ' का योग । ४) दिव्य जननी ने जो शरीर धारण किया है और धरती पर जिस अविद्या और मिथ्यात्व मे अवतरित हुई हैं, अपने- आपको उसके अनुकूल बनाने मे उनकी अनुभूतियां ।
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( आश्रम की एक साधिका ने माताजी के साध 'सावित्री ' विषयक चित्र बनाये थे '' मोइटेशन ऑन सावित्री '' नाम से उनकी प्रदर्शनी की गयी के लिये सन्देश)
सावित्री का महत्त्व अपरिमित हे ।
इसका विषय सार्वभौम है । इसका अन्तर्ज्ञान भविष्यवाणी हे । इसके वातावरण में बिताया गया समय व्यर्थ नहीं जाता । इस प्रदर्शनी को देखने में यथावश्यक समय दो । मनुष्य जो कुछ करते हैं उसमें एक उत्तेजनाभरी हड़बड़ी होती हे, यह उसकी एक अच्छी क्षतिपूति है।
१० फरवरी १९६७
२६
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